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कोरोना के साथ ही दूसरी संक्रामक बीमारियों के लिए भी फास्ट ट्रैक मोड अपनाना होगाः डॉ. श्रीवास्तव


“कोरोना की नई चुनौती के बावजूद हम संक्रामक रोगों को सीमित रखने में कामयाब रहे”

हार्वर्ड टी.एच.चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के इंडिया रिसर्च सेंटर और प्रोजेक्ट ‘संचार’ ने ‘ऑन द फ्रंटलाइन्स’ वेबिनार सीरिज के तहत बुधवार को ‘कोरोना काल में संक्रामक रोगों का प्रबंधन’ विषय पर वेबिनार आयोजित की।



 भागलपुर,  ‘कोरोना काल में संक्रामक रोगों का प्रबंधन’ विषय पर हार्वर्ड टी.एच.चैन  स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के इंडिया रिसर्च सेंटर और प्रोजेक्ट ‘संचार’ की ओर से बुधवार को आयोजित वेबिनार के दौरान भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) पटना के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने इसके विभिन्न पहलुओं को सामने लाया। इन विशेषज्ञों ने इस बात पर जोर दिया कि कोरोना से निपटने के साथ ही हमें दूसरी संक्रामक बीमारियों के खतरे पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा। 


डॉ. रजनी कांत श्रीवास्तव आईसीएमआर (ICMR)- रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर (RMRC), गोरखपुर के निदेशक हैं और साथ ही आईसीएमआर (ICMR) मुख्यालय में हेड, रिसर्च, मैनेजमेंट, पॉलिसी, प्लानिंग एंड कोऑर्डिनेशन का अतिरिक्त प्रभार भी इनके पास है। डॉ. श्रीवास्तव ने कहा, “हमारे यहां स्वास्थ्य के संसाधन सीमित रहे हैं और साथ ही स्वास्थ्य समस्याएं भी अधिक हैं। हमारे देश में आज भी मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और फाइलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियों की समस्या बनी हुई है। ऐसे में कोरोना के आने के बाद इन बीमारियों के नियंत्रण उपायों पर प्रभाव जरूर पड़ा। लेकिन देश में कहीं ऐसा नहीं हुआ कि मलेरिया को डेंगू का प्रकोप काफी बढ़ गया हो। इन बीमारियों को भी काफी नियंत्रण में रखा जा सका। दूसरी संक्रामक बीमारियों से नियंत्रण को फास्ट ट्रैक मोड में ले जाना होगा। इनके लिए अलग से संसाधनों को उपलब्ध रखना होगा।”


इसी तरह ICMR की नई दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पैथलॉजी की निदेशक रही डॉ. पूनम सलोत्रा का कहना है कि जब कोरोना वैश्विक महामारी आई तो इसके बड़े खतरे को देखते हुए उपलब्ध लोक स्वास्थ्य संसाधनों को काफी हद तक इसमें लगा दिया गया था। अब स्थिति काफी व्यवस्थित हुई है। लेकिन अभी भी स्वास्थ्य क्षेत्र का मानव संसाधन बड़ी मात्रा में कोविड-19 से निपटने में व्यस्त है। ऐसे में दूसरी बीमारियों की उपेक्षा की आशंका रहती है, जिसे हमें रोकना है। ऐसा नहीं हो कि दूसरी बीमारियों का खतरा और बढ़ जाए। इसी तरह हमें यह भी नहीं भूलना है कि एक साथ कोरोना और दूसरी संक्रामक बीमारियां भी हो सकती हैं, जैसे मलेरिया और कोरोना।


अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना में एसोसिएट प्रोफेसर और बर्न एंड प्लास्टिक सर्जरी विभाग की प्रमुख डॉ. वीणा सिंह ने कहा कि “पिछले साल की तुलना में बिहार में डेंगू और मलेरिया के मामलों में इस वर्ष ज्यादा अंतर नहीं देखा गया है। हालांंकि एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (AES) के मामलों में कमी आयी है।” एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि कोविड-19 के मरीजों में डेंगू या चिकनगुनिया के एंटीबॉडी विकसित होने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। इसलिए कोरोना से ठीक हुए लोगों को भी दूसरी बीमारियों से सावधान रहने की जरूरत है। एक प्रश्न के जवाब में डॉ. सिंह ने आगाह किया की “अगर बुखार या फिर कोविड के लक्षण दिख रहे हैं, तो कोविड टेस्ट (RTPCR/ एंटीजन टेस्ट) ज़रूर करवाएं। प्लेटलेट्स गिनने के बाद डॉक्टर तय करेंगे कि डेंगू है या नहीं।” 


कालाजार में उपयोगी होगा कंबिनेशन ट्रीटमेंट 

बिहार में आज भी कालाजार का खतरा बना हुआ है। इस संबंध में डॉ. सलोत्रा ने कहा कि रेजर्वायर Post-kala-azar dermal leishmaniasis (पीकेडीएल) के इलाज के लिए कंबिनेशन ट्रीटमेंट को शोध में काफी उपयोगी पाया गया है। लंबा इलाज हो तो अक्सर मरीज थोड़े सुधार के बाद उसे बीच में छोड़ देते हैं। इससे दवा प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो जाती है। कबिनेशन थेरेपी में दो दवाएं एक साथ देने से  समय कम लगता है और कंप्लायंस अच्छी हो जाती है। 


प्रभावी है जेई का स्वदेशी टीका

बिहार और उत्तर प्रदेश में बच्चों में बड़ी संख्या में होने वाली जापानी इंसेफलाइटिस और एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) को लेकर डॉ. श्रीवास्तव ने कई जानकारी दीं। उन्होंने कहा कि जेई के लिए चीन में विकसित टीका तो पहले से ही उपलब्ध था, इसके अलावा भारत में स्वदेशी टीका भी तैयार हो चुका है। आईसीएमआर की राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान (एनआईवी), पुणे ने भारत बायोटेक के साथ मिल कर इसका स्वदेशी टीका तैयार कर लिया है। सघन टीकाकरण से जेई के मामलों में काफी कमी आई है।




AES के 40-50% मामले स्क्रब टाइफस की वजह से

इसी तरह एईएस के लिए बस्ती और गोरखपुर के सात जिलों में अध्ययन किया गया। इससे पता चला कि एईएस के 40-50 प्रतिशत मामले स्क्रब टाइफस की वजह से होते हैं। यह बैक्टेरियल बीमारी है, जिसका इलाज उपलब्ध है। समय पर इसका इलाज हो तो वह एईएस के रूप में नहीं बदलेगा। यह पता चलने के बाद से एईएस के मामलों में कमी आई है। इसमें आरएमआरसी का बहुत योगदान रहा है।


कोरोना ने कई सीख भी दीं

डॉ. सलोत्रा ने कहा कि कोरोना की आपदा ने लोक स्वास्थ्य व्यवस्था को कई तरह की सीख भी दी है। जिस तरह कोरोना टीका विकसित करने की तेज प्रक्रिया अपनाई गई है, वह दूसरी बीमारियों के टीके के लिए भी अपनाई जा सकेगी। इसी तरह अमेरिका में एमआरएनए (mRNA) आधारित टीके बनाए जा रहे हैं। हमारे देश में बीमारियों की जांच को ले कर एक नया मजबूत ढांचा बन सका है। जो मोलेक्युलर जांच पहले सिर्फ बड़े केंद्रों पर होती थी, उसे अब दूर-दराज के इलाकों में भी उपलब्ध करवाया जा सकेगा। इसी तरह अब ऐसी व्यवस्था तैयार की जा रही है जिससे किसी क्षेत्र विशेष में एक साथ जिन एक तरह की संक्रामक बीमारियों का खतरा होता है, उनकी जांच एक ही बार में कर ली जाए। जैसे बिहार में मलेरिया और कालाजार की जांच एक साथ हो जाए। इस तरह क्रमिक रूप से ऐसी सभी बीमारियों का पूरा पैनल तैयार कर लिया जाए और उनकी जांच एक साथ कर ली जाए।


गलत सूचना से सावधान रहें

डॉ. श्रीवास्तव ने इन दिनों मैसेजिंग प्लेटफार्म और सोशल मीडिया के जरिए फैल रही गलत सूचनाओं से सावधान करते हुए इसे इंफोडेमिक का नाम दिया और इससे बचने को बहुत जरूरी बताया। उन्होंने कहा कि व्हाट्सऐप पर आने वाली सूचना पूरी तरह गलत हो सकती है। इसी तरह गूगल पर उपलब्ध सभी सूचना सही नहीं होती। विश्वसनीय स्रोत से मिली सूचना पर ही भरोसा करें। डॉ. वीणा सिंह ने कोविड-19 के मरीजों को अवसाद से बचने के लिए खास तौर पर व्यायाम, योग करने, अपनी रुचि के लिए समय निकालने की सलाह दी। वेबिनार का संचालन ‘राजस्थान पत्रिका’ के वरिष्ठ पत्रकार मुकेश केजरीवाल ने किया। 


वेबिनार के बारे मेंः "On the Frontlines" सीरीज के तहत आज की इस वेबिनार का आयोजन ‘प्रोजेक्ट संचार’ और हार्वर्ड टी.एच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ- इंडिया रिसर्च सेंटर की ओर से किया गया। इंडिया रिसर्च सेंटर हार्वर्ड टी.एच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ का पहला ग्लोबल सेंटर है। इसे 2015 में स्थापित किया गया था। इसका नेतृत्व प्रो. के. विश्वनाथ करते हैं। ये हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में हेल्थ कम्यूनिकेशन के ली कम की प्रोफेसर हैं। साथ ही प्रोजेक्ट संचार का भी नेतृत्व करते हैं। 


प्रोजेक्ट संचार के बारे मेंः प्रोजेक्ट संचार (साइंस एंड न्यूजः कम्यूनिकेटिंग हेल्थ एंड रिसर्च) का मकसद पत्रकारों को स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर काम करने के लिए अधिक सक्षम बनाना है, ताकि वे इन विषयों पर लोगों की जानकारी, नजरिये और लोक नीति को आकार देने के लिए नवीनतम वैज्ञानिक शोध और आंकड़ों का बेहतर उपयोग कर सकें। इस प्रोजेक्ट के तहत वर्ष 2019 से अब तक भारत के 9 राज्यों के 70 जिलों के लगभग 200 पत्रकारों को प्रशिक्षित किया जा चुका है।

रिपोर्टर

  • Swapnil Mhaske
    Swapnil Mhaske

    The Reporter specializes in covering a news beat, produces daily news for Aaple Rajya News

    Swapnil Mhaske

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